Wednesday 18 October 2023

AUTUMN BREAK HOLIDAY HOME WORK

 

AUTUMN BREAK HOLIDAY HOME WORK 2023



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Thursday 7 October 2021

Monday 26 April 2021

वीर कुँवर सिंह

 

कुंवर सिंह (13 नवम्बर 1777 – 26 अप्रैल 1858) 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान एक उल्लेखनीय नेता थे। वीर कुंवर सिंह मालवा के सुप्रसिद्ध शासक महाराजा भोज के वंशज थे. इन्हें भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायक के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का साहस रखते थे. अन्याय विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी कुंवर सिंह कुशल सेना नायक थे. इन्हें बाबू कुंवर सिंह के नाम से भी जाना जाता हैं। वीर कुंवर सिंह का जन्म 13 नवंबर 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था।  इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह और  माताजी का नाम पंचरत्न कुंवर था. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह थे। 

साल 1848 – 49 में जब क्रूर अंग्रेजी शासकों की विलय नीति से बड़े-बड़े शासकों के अंदर डर जाग गया था। उस समय कुंवर वीर सिंह, अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए। दरअसल, अंग्रेजों की अत्याचारी नीतियों के कारण किसानों के अंदर भी रोष पैदा हो गया था। वहीं इस दौरान सभी राज्यों के राजा अंग्रेजों के खिलाफ विरोध कर रहे थे, इसी वक्त बिहार के दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर ने अंग्रेजो के खिलाफ धावा बोल दिया।

इसके साथ ही इसी दौरान मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इस दौरान वीर कुंवर सिंह ने अपने साहस, पराक्रम और कुशल सैन्य शक्ति के साथ इसका नेतृत्व किया और ब्रिटिश सरकार को उनके आगे घुटने टेंकने को मजबूर कर दिया।

आरा में आन्दोलन की कमान कुंवर सिंह ने संभाल ली और जगदीशपुर में विदेशी सेना से मोर्चा लेकर सहसराम (सासाराम) और रोहतास में विद्रोह की अग्नि प्रज्ज्वलित की। उसके बाद वे 500 सैनिकों के साथ रीवा पहुँचे और वहाँ के ज़मींदारों को अंग्रेज़ों से युद्ध के लिए तैयार किया। वहाँ से बांदा होते हुए कालपी और फिर कानपुर पहुँचे। तब तक तात्या टोपे से उनका सम्पर्क हो चुका था। कानपुर की अंग्रेज़ सेना पर आक्रमण करने के बाद वे आजमगढ़ गये और वहाँ के सरकारी ख़ज़ाने पर अधिकार कर छापामार शैली में युद्ध जारी रखा। यहाँ भी अंग्रेज़ी सेना को पीछे हटना पड़ा।

इस समय बाबू कुंवर सिंह की उम्र 80 वर्ष की हो चली थी। वे अब जगदीशपुर वापस आना चाहते थे। कुँवर सिंह सेना के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से रात्रि के समय कश्तियों में गंगा नदी पार कर रहे थे तभी अंग्रेजी सेना वहां पहुंची और अंधाधुंध गोलियां चलाने लगी. वीर कुंवर सिंह इस दौरान घायल हो गए और एक गोली उनके बांह में लगी उन्होंने अपनी तलवार से कलाई काटकर नदी में प्रवाहित कर दी। वे अपनी सेना के साथ जंगलों की ओर चले गए और अंग्रेज़ी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल1858 को जगदीशपुर पहुँचे। लोगों ने उनको सिंहासन पर बैठाया और राजा घोषित किया। परन्तु कटे हाथ में सेप्टिक हो जाने के कारण '1857 की क्रान्ति' के इस महान् नायक ने 26 अप्रैल, 1858 को अपने जीवन की इहलीला को विराम दे दिया।  

23 अप्रैल 1966 को भारत सरकार ने उनके नाम का मेमोरियल स्टैम्प भी जारी किया. कुंवर सिंह न केवल 1857 के महासमर के सबसे महान योद्धा थे बल्कि ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, “उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी. वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता.” इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी थी.

 



Thursday 30 July 2020

मुंशी प्रेमचंद




हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक मुंशी प्रेमचंद की आज जयंती है। उनका हिंदी साहित्य में योगदान का कोई जोड़ नहीं है। उनके लिखे उपन्यास और कहानियों की देश ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के पाठकों के दिल में एक खास जगह है।
आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह माने जाने वाले प्रेमचंद ने स्वयं तो अनेकानेक कालजयी कहानियों एवं उपन्यासों की रचना की है  अपने जीवनकाल में प्रेमचंद ने 300 से अधिक कहानियों, 15 से अधिक उपन्यासों, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तके  एवं हजारों पृष्ठ के लेख, सम्पादकीय, व्याख्यान, भूमिकापत्र आदि की रचना की , उनकी अनेक रचनाओं का भारत की एवं अन्य राष्ट्रों की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। इनकी रचनाओं को आधार में रखते हुए अनेक फिल्मों धारावाहिकों को निर्माण भी हो चुका है।
मुंशी  प्रेमचंद एक बहुत गुणी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे. प्रेमचन्द अपनी हिंदी और उर्दू भाषी रचनाओ के लिए जाने जाते है. प्रेमचंद को “कलम के सिपाही” की संज्ञा भी दी गयी है.उनकी हिंदी और उर्दू भाषा में अच्छी पकड़ थी. वे बनना तो वकील चाहते थे लेकिन हालत ने उन्हें साहित्यकार बना दिया. उन्होंने अपना बचपन बहुत गरीबी और तंगहाली में व्यतीत किया है.आइये विस्तार पूर्वक मुंशी प्रेमचंद के जीवन के बारे में जानते है
नाम  मुंशी प्रेमचंद

असली नाम  धनपत राय

माता  आनंदी देवी

पिता  मुंशी अजायब राय

जन्म 31 जुलाई 1880

जन्म स्थान  लमही (वाराणसी)

पत्नी  शिवरानी देवी

मृत्यु  8 अक्टूबर 1936

प्रथम हिंदी कहानी   सोत (1915)

कार्यक्षेत्र  लेखक, साहित्यकार

राष्ट्रीयता  भारतीय

भाषा  हिन्दी, उर्दू

जीवनी

31 जुलाई 1880 में प्रेमचंद का जन्म हुआ था उनकी माँ का नाम आनंदी देवी था और पिता का नाम मुंशी अजायब राय था. उनके पिताजी लहरी गाँव में डाक मुंशी थे. माता पिता ने प्रेमचंद का नाम धनपत राय रखा था. जब प्रेमचंद 8 साल के थे तब उनकी माता की मृत्यु हो गयी थी. इसके बाद प्रेमचंद के पिताजी ने दूसरी शादी कर ली.

शोतेली माँ का व्यवहार प्रेमचंद के साथ बहुत खराब था. जिस उम्र में उन्हें प्रेम की आवश्कता थी उस समय सिर्फ उन्हें डाट- डपट के आलावा कुछ नही मिला. प्रेमचंद जब 15 साल के थे तब उनके पिता ने उनकी शादी करा दी थी. साल भर बाद ही पिता के देहांत के बाद पांच लोगो के परिवार की जिम्मदारी उनके कंधो पर आ गयी थी.

इन्ही हालत के बाद प्रेमचंद ने लिखना शुरु किया था. हालाँकि तेरह साल की उम्र में ही प्रेमचंद ने लिखना शुरु कर दिया था. प्रेमचंद उस समय इतने गरीब थे की उनके पास पहनने के लिए कपड़े भी नही थे. घर के खर्चे चलाने के लिए प्रेमचंद को अपने घर की कीमती वस्तुओं के साथ- साथ अपना कोट और किताबे भी बेचनी पड़ी.

इसी दोरान जब वो अपनी पुस्तके एक दुकान पर बेचने निकले तो उन्हें वह एक विधालय के हेडमास्टर मिले उन्होंने प्रेमचंद को अपने विधालय में अध्यापक की नोकरी पर रख लिया. 1905 में प्रेमचंद की पत्नी विवाद की वजह से घर छोड़ कर चली गयी और फिर कभी लौट कर वापस नहीं आयी.

पत्नी से सम्बन्ध खत्म होने के प्रेमचंद ने दूसरी शादी शिवरानी से विवाह कर लिया. शिवरानी एक विधवा थी इसीलिए प्रेमचंद ने उनसे विवाह किया था.

लेकिन उनकी पहली हिंदी कहानी 1915 में सरस्वती पत्रिका में “सोत” नाम से प्रकाशित हुई थी. इस बीच 1919 में बीए पास करने के बाद प्रेमचंद को शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर की नोकरी भी मिल गयी थी. तो बाद में दूसरी तरफ साहित्य का सफर भी मरते दम तक जारी रहा. 8 अक्टूबर 1936 को उनकी मृत्यु हो गयी थी.

अपनी मोत से दो साल पहले अपनी आर्थिक स्थति में सुधार करने के लिए मायानगरी मुंबई गये थे. अजन्ता कम्पनी में कहानी लेखक की नोकरी भी की लेकिन फिल्म उधोग उन्हें रास नही आया. साल भर में ही कॉन्ट्रैक्ट पूरा किये बिना लोट आये थे.

मुंशी प्रेमचंद की शिक्षा :- प्रेमचंद के घर की हालत खराब थी इसलिए उन्होंने एक साधारण विधालय में पढाई की थी वे पढाई करने के लिए अपने गाँव से नंगे पांव ही पैदल बनारस जाया करते थे. उनकी शुरु से ही उर्दू और हिंदी भाषा में पकड़ रही है. लेकिन उर्दू भाषा उन्हें अच्छी लगती थी शायद इसी कारण उन्होंने पहले अपनी रचनाये उर्दू में लिखी.

उन्होंने 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी इसके साथ ही उन्होंने एक स्थानीय विधालय में शिक्षक की नोकरी करने लगे और उन्होंने अपनी पढाई जारी रखी और 1910 में उन्‍होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया.

प्रेमचंद पढ़ लिख कर वकील बनना चाहते थे, लेकिन गरीबी की वजह से उनका यह ख्वाब पूरा नही हो पाया. इस बीच वो बच्चो को ट्यूशन पढ़ाने लगे और इससे उन्हें पांच रूपये मिलते थे. इसमे से तीन रूपये वे अपने घर वालो को देते थे और बचे दो रूपये से वो अपनी जिंदगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते थे.

तभी प्रेमचंद का साहित्य की तरफ झुकाव बढ़ गया. प्रेमचंद ने उपन्यास पढना प्रारम्भ कर दिया. उन पर किताब पढने का ऐसा जनून सवार हुआ की उन्होंने किताब बेचने वाले की दुकान मेंही सारी किताबे पढ़ डाली. इसके बाद 1919 में बीए पास की और फिर शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर की नोकरी करने लगे.
प्रेमचंद की कहानी “सोजे वतन” से अंग्रेज इतना डर गए थे की उनका एक हाथ कटवाने की कोशिश भी की गयी लेकिन वहाँ का दारोगा रहमदिल था तो उनका नाम ही बदल दिया था और उन्हें बिना इजाजत कहानिया लिखने के लिए मना कर दिया था. इसी के बाद “धनपतराय” के नाम से कहानिया लिखने वाले कलम का सिपाही प्रेमचन्द हो गया लेकिन उनकी कलम नही डरी. वो गुलाम भारत के समाज की कुरूतियो को किसी माहिर सर्जन की तरह चीर-फाड़ करने लगे.
प्रेमचंद की कहानियों पर फिल्मे भी बन चुकि है जैसे शतरंज के खिलाड़ी, गोदान, हीरा-मोती और गबन. यही नही जाने माने कृतिकार निर्देशक गुलजार भी प्रेमचन्द को श्रधांजलि देने के लिए उनकी रचनाओ पर करीब डेढ़ दशक पहले दूरदर्शन के लिए “तहरीर” सीरियल का निर्माण कर चुके है.
मनरेगा मजदुर के जमाने में प्रेमचंद की कहानी “कफ़न” मजदूर की मजबूरी को सबसे मजबूत तरीके से उठाती है.

शुरुवात में प्रेमचंद हिंदी की बजाए उर्दू में लिखा करते थे

1918 में मुंशी प्रेमचंद का पहला उपन्यास “सेवासदन” प्रकाशित हुआ था, लेकिन वो इसे पहले ही उर्दू में बाजार-ए-हसन के नाम से लिख चुके थे.

1921 में आये किसान जीवन पर उनके पहले उपन्यास प्रेमाश्रम भी पहले उर्दू में गोसा आफ़ियत नाम से तैयार हुआ था. हालाँकि दोनों ही उपन्यासों को उन्होंने पहले हिंदी में प्रकाशित कराया था.

जब मुंशी प्रेमचंद लिखने बैठते थे उसके बाद उन्हें खाने (भूख) का भी पता नही चलता था और प्रेमचंद हुक्का पीने के शोकीन थे.
प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास :- असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य 1903-1905, सेवासदन 1918, प्रेमाश्रम 1922, रंगभूमि 1925, निर्मला 1925, कायाकल्प 1927, गबन 1928 , कर्मभूमि 1932, गोदान 1936,

मुंशी प्रेमचन्द के प्रसिद्ध नाटक :- 
संग्राम – 1923, कर्बला – 1924, प्रेम की वेदी – 1933

प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानियाँ :-  गुल्‍ली डंडा, ईदगाह, दो बैलों की कथा, पंच परमेश्‍वर, पूस की रात,ठाकुर का कुआँ, बूढ़ी काकी, दूध का दाम, कफन, पंच परमेश्‍वर आदि है.


Sunday 25 September 2016

KV ARA LIBRARY




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