कुंवर सिंह (13 नवम्बर 1777 – 26
अप्रैल 1858) 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान
एक उल्लेखनीय नेता थे। वीर कुंवर सिंह मालवा के
सुप्रसिद्ध शासक महाराजा भोज के वंशज थे. इन्हें भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
के महानायक के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में
भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का साहस रखते थे. अन्याय विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी
कुंवर सिंह कुशल सेना नायक थे. इन्हें बाबू कुंवर सिंह के नाम से भी जाना जाता हैं।
वीर कुंवर सिंह का जन्म 13 नवंबर 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था। इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह और माताजी का नाम पंचरत्न कुंवर था. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह थे।
साल 1848 – 49 में जब क्रूर अंग्रेजी
शासकों की विलय नीति से बड़े-बड़े शासकों के अंदर डर जाग गया था। उस समय कुंवर वीर
सिंह, अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए। दरअसल, अंग्रेजों की अत्याचारी नीतियों के कारण किसानों के अंदर भी रोष पैदा हो
गया था। वहीं इस दौरान सभी राज्यों के राजा अंग्रेजों के खिलाफ विरोध कर रहे थे,
इसी वक्त बिहार के दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के
सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर ने अंग्रेजो के खिलाफ धावा बोल दिया।
इसके साथ ही इसी दौरान मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद,
कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी विद्रोह की
ज्वाला भड़क उठी। इस दौरान वीर कुंवर सिंह ने अपने साहस, पराक्रम
और कुशल सैन्य शक्ति के साथ इसका नेतृत्व किया और ब्रिटिश सरकार को उनके आगे घुटने
टेंकने को मजबूर कर दिया।
आरा में आन्दोलन की कमान कुंवर सिंह ने संभाल ली और जगदीशपुर में विदेशी सेना
से मोर्चा लेकर सहसराम (सासाराम) और रोहतास में विद्रोह की अग्नि प्रज्ज्वलित की। उसके बाद वे 500 सैनिकों के साथ
रीवा पहुँचे और वहाँ के ज़मींदारों को अंग्रेज़ों से युद्ध के लिए तैयार किया।
वहाँ से बांदा होते हुए कालपी और फिर कानपुर पहुँचे। तब तक तात्या टोपे से उनका सम्पर्क हो चुका था। कानपुर की अंग्रेज़ सेना पर आक्रमण करने के बाद वे आजमगढ़ गये और वहाँ के सरकारी ख़ज़ाने पर अधिकार कर छापामार शैली में युद्ध जारी
रखा। यहाँ भी अंग्रेज़ी सेना को पीछे हटना पड़ा।
इस समय बाबू कुंवर सिंह की
उम्र 80 वर्ष की हो
चली थी। वे अब जगदीशपुर वापस आना चाहते थे। कुँवर सिंह
सेना के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से रात्रि के समय कश्तियों में गंगा नदी पार
कर रहे थे तभी अंग्रेजी सेना वहां पहुंची और अंधाधुंध गोलियां चलाने लगी. वीर
कुंवर सिंह इस दौरान घायल हो गए और एक गोली उनके बांह में लगी उन्होंने अपनी तलवार से कलाई काटकर नदी में प्रवाहित कर दी। वे अपनी सेना
के साथ जंगलों की ओर चले गए और अंग्रेज़ी सेना को पराजित करके 23 अप्रैल, 1858 को जगदीशपुर पहुँचे। लोगों ने उनको सिंहासन पर बैठाया और राजा घोषित किया।
परन्तु कटे हाथ में सेप्टिक हो जाने के कारण '1857 की
क्रान्ति' के इस महान् नायक ने 26 अप्रैल, 1858 को अपने जीवन की इहलीला को विराम
दे दिया।
23 अप्रैल 1966
को भारत सरकार ने उनके नाम का मेमोरियल स्टैम्प भी जारी किया. कुंवर
सिंह न केवल 1857 के महासमर के सबसे महान योद्धा थे बल्कि
ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, “उस
बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई
लड़ी. वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत
छोड़ना पड़ता.” इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी थी.
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